परिचय
महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘महाराष्ट्र विशेष सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 2024’ राज्य में भारी बहस का विषय बन गया है। सरकार का दावा है कि यह कानून “शहरी नक्सलवाद” और अराजकता से निपटने के लिए ज़रूरी है, लेकिन विपक्ष और नागरिक अधिकार समूह इसे “लोकतंत्र के लिए ख़तरा” बता रहे हैं। आख़िर क्यों इस विधेयक को लेकर इतना विवाद है? क्या यह वाकई सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, या फिर यह सरकारी आलोचनाओं को दबाने का औज़ार बनेगा? आइए, समझते हैं पूरा मामला।
पृष्ठभूमि: कब और क्यों लाया गया यह विधेयक?
- प्रस्तावक: मौजूदा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने इसे पिछले साल दिसंबर में डिप्टी सीएम के तौर पर विधानसभा में पेश किया था।
- घोषित उद्देश्य: “शहरी नक्सलियों” (उग्रवादी विचारधारा वाले शहरी समूहों) के खिलाफ कार्रवाई करना और सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखना।
- वर्तमान स्थिति: विधेयक पर जनता और संगठनों से 1 अप्रैल, 2025 तक आपत्तियाँ और सुझाव आमंत्रित किए गए हैं।

कानून के प्रमुख प्रावधान: क्या है चिंता की वजह?
विधेयक की आलोचना मुख्य रूप से “अवैध कार्य” और “अवैध संगठन” की अस्पष्ट परिभाषाओं को लेकर हो रही है। ये शब्दावली सरकार को असीमित शक्तियाँ दे सकती हैं:
- अवैध कार्य की व्यापक परिभाषा:
- सार्वजनिक व्यवस्था को “ख़तरे में डालने वाली” कोई भी बातचीत, लेखन, या प्रदर्शन।
- सरकारी संस्थानों या कर्मचारियों के कामकाज में “हस्तक्षेप” की आशंका।
- उदाहरण: यदि कोई एनजीओ पर्यावरण नीतियों के खिलाफ शांतिपूर्ण धरना देता है, तो उसे “सार्वजनिक व्यवस्था बाधित करने” के तहत अवैध घोषित किया जा सकता है।
- अवैध संगठन का दायरा:
- किसी भी समूह को “अवैध” घोषित करने का अधिकार, भले ही उसकी गतिविधियाँ गैर-हिंसक हों।
- दंड: ऐसे संगठनों से जुड़े लोगों को 3 साल की जेल या 3 लाख रुपये का जुर्माना।
- सरकारी अधिकारों का विस्तार:
- संदिग्धों की संपत्ति ज़ब्त करना, बिना वारंट गिरफ़्तारी, और न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप की शक्ति।

विरोध क्यों? लोकतंत्र के चार बड़े ख़तरे
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार:
- सरकारी आलोचना को “अवैध” ठहराने का जोखिम। उदाहरण: 2020 के किसान आंदोलन में भी सरकार ने “देशद्रोही” शब्द का इस्तेमाल किया था।
- सुप्रिया सुले का तीखा सवाल: “क्या असहमति जताना अब अपराध होगा?”
- न्यायपालिका की स्वायत्तता को ख़तरा:
- विधेयक में सरकार को न्यायिक प्रक्रियाओं में दख़ल देने का अधिकार, जो संविधान के बुनियादी ढाँचे के विरुद्ध है।
- मनमानी गिरफ़्तारियों का डर:
- रॉलेट एक्ट (1919) की याद दिलाता यह कानून, जिसके तहत ब्रिटिश सरकार बिना मुकदमा चलाए लोगों को जेल में डाल सकती थी।
- सिविल सोसाइटी पर दबाव:
- एनजीओ, मीडिया, और मानवाधिकार संगठनों की कार्यशैली प्रभावित होगी। 2015 के FCRA संशोधन के बाद से ही सरकारी फंडिंग पर नियंत्रण बढ़ा है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ: सत्ता और विपक्ष का टकराव
- विपक्ष का रुख:
- सुप्रिया सुले (एनसीपी) ने विधेयक को “पुलिस राज का द्वार” बताया। उनका कहना है कि यह “हम भारत के लोग” के सिद्धांत को कमज़ोर करता है।
- उद्धरण: “यह कानून नागरिकों को प्रताड़ित करने और विरोधियों को चुप कराने का हथियार बन जाएगा।”
- सरकार का पक्ष:
- देवेंद्र फडणवीस का दावा है कि यह कानून “वास्तविक असहमति” को नहीं, बल्कि हिंसक गतिविधियों को रोकेगा।
- तर्क: “शहरी नक्सलवाद” से जुड़े समूहों द्वारा युवाओं को भड़काने की घटनाएँ (जैसे भीमा कोरेगाँव मामला) इसकी ज़रूरत साबित करती हैं।
जनता की आशंकाएँ: क्या होगा अगला कदम?
- शहरी मध्यम वर्ग में चिंता: सोशल मीडिया पोस्ट, कला प्रदर्शन, या छात्र आंदोलनों को “अवैध” घोषित किया जा सकता है।
- कानूनी विशेषज्ञों की राय: मुंबई हाई कोर्ट के वकील अभय नेवरेकर कहते हैं, “अस्पष्ट परिभाषाएँ मनमानी को बढ़ावा देंगी। यह IPC और UAPA जैसे मौजूदा कानूनों को दोहराव है।”
- ऐतिहासिक सबक: 1975 के आपातकाल के दौरान भी “राष्ट्रहित” के नाम पर नागरिक अधिकारों को कुचला गया था।
निष्कर्ष: लोकतंत्र बनाम सत्ता का संतुलन
महाराष्ट्र सरकार का यह कदम एक बार फिर “सुरक्षा बनाम स्वतंत्रता” की बहस को जन्म देता है। हालाँकि, किसी भी लोकतांत्रिक समाज में रचनात्मक आलोचना और शांतिपूर्ण विरोध उसकी रीढ़ होते हैं। यदि इस विधेयक को मौजूदा स्वरूप में पास कर दिया गया, तो यह न केवल महाराष्ट्र, बल्कि पूरे देश के लिए एक ख़तरनाक मिसाल कायम करेगा। जनता और संवैधानिक संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी है कि वे सरकारी शक्तियों पर लगाम लगाएँ और मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करें।
अंतिम शब्द: 1 अप्रैल, 2025 तक आपत्तियाँ दर्ज कराने का अवसर है। क्या नागरिक समाज और विपक्ष इस कानून को रोक पाएँगे? यह प्रश्न महाराष्ट्र की लोकतांत्रिक परिपक्वता की परीक्षा होगी।