उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और बीजेपी नेता संगीत सोम के हालिया बयानों ने एक बार फिर देश में इतिहास की व्याख्या और उसके राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर बहस छेड़ दी है। इन नेताओं ने मुगल शासक औरंगजेब जैसे “आक्रमणकारियों” का महिमामंडन करने वालों को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए ‘नए भारत’ की राष्ट्रवादी परिभाषा गढ़ने की कोशिश की है। वहीं, आरएसएस ने इस मुद्दे पर अलग रुख अपनाते हुए कहा कि “औरंगजेब अब प्रासंगिक नहीं है”। यह टकराव सिर्फ ऐतिहासिक नज़रिए का नहीं, बल्कि सत्ता और संगठन के बीच रणनीतिक अंतर का भी संकेत देता है।
यूपी के नेताओं का आक्रामक रुख: ‘नया भारत’ बनाम ‘मुगल विरासत’
- योगी आदित्यनाथ का ‘देशद्रोह’ का नारा:
बहराइच में दिए गए भाषण में योगी ने साफ कहा कि जो लोग भारत पर हमला करने वाले आक्रामकों को गौरवान्वित करते हैं, वे “नए भारत” के लिए स्वीकार्य नहीं हैं। उन्होंने सनातन संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश करने वालों की प्रशंसा को राष्ट्रविरोधी बताया। यह बयान बीजेपी की उस रणनीति का हिस्सा लगता है, जो ‘हिन्दू पहचान’ को राष्ट्रीय पहचान से जोड़कर चुनावी लाभ लेना चाहती है। - केशव मौर्य का आरएसएस से अलग रास्ता:
उपमुख्यमंत्री मौर्य ने आरएसएस से इतर जाकर कहा कि औरंगजेब जैसे शासकों का सम्मान करने वाले “भारत माता के सच्चे सपूत” नहीं हो सकते। यह टिप्पणी दिलचस्प है, क्योंकि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत अक्सर ‘एक भारत’ की बात करते हैं, जबकि यूपी के नेता सीधे मुस्लिम शासकों को निशाना बना रहे हैं। - संगीत सोम का विवादास्पद इतिहास:
पूर्व विधायक संगीत सोम ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस का जिक्र करते हुए मथुरा-काशी को “मुक्त” करने की बात कही। यह बयान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देने वाला है, खासकर तब, जब मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह विवाद अदालत में लंबित है।

आरएसएस का रुख: ‘औरंगजेब अप्रासंगिक’, पर क्यों?
आरएसएस ने हाल ही में कहा कि औरंगजेब को लेकर बहस करना “वर्तमान समय के लिए अनावश्यक” है। यह बयान यूपी के नेताओं के आक्रामक स्वर से स्पष्ट अंतर दिखाता है। विश्लेषकों के अनुसार, संघ शायद इस बात से बचना चाहता है कि मुगल काल को लेकर अति-आक्रामक बयान साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा सकते हैं। साथ ही, आरएसएस की रणनीति दीर्घकालिक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर केंद्रित है, जबकि बीजेपी नेता तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए इतिहास का इस्तेमाल कर रहे हैं।
नागपुर हिंसा: विहिप-बजरंग दल का प्रदर्शन और राजनीतिक संरक्षण
महाराष्ट्र के नागपुर में हुई हिंसा इस बहस का एक अहम पहलू है। विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने औरंगजेब की कब्र हटाने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया, जो हिंसक हो गया। दिलचस्प है कि इन कार्यकर्ताओं पर दंगा करने की एफआईआर दर्ज हुई, लेकिन उन्हें तुरंत जमानत मिल गई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भी इन संगठनों के बयानों का समर्थन किया, जो सत्ता और संगठन के गठजोड़ को दर्शाता है।

रणनीतिक उद्देश्य: इतिहास से वोट की राजनीति तक
- हिन्दू राष्ट्रवाद का नैरेटिव:
यूपी के नेताओं के बयानों का उद्देश्य ‘हिन्दू अस्मिता’ को मजबूत करना है। औरंगजेब को ‘क्रूर शासक’ और मंदिर विध्वंसक के रूप में पेश करके वे हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करना चाहते हैं। - मथुरा-काशी का भूमि विवाद:
संगीत सोम का बयान साफ संकेत है कि अयोध्या के बाद मथुरा और काशी को लेकर अगला अभियान चलाया जा सकता है। यह रणनीति धार्मिक स्थलों के इर्द-गिर्द साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश है। - आरएसएस और बीजेपी के बीच तालमेल:
आरएसएस का नरम रुख और बीजेपी नेताओं की आक्रामकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संघ दीर्घकालिक सांस्कृतिक प्रभाव चाहता है, जबकि बीजेपी तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए इसे इस्तेमाल करती है।
निष्कर्ष: इतिहास की राजनीति और राष्ट्रीय एकता का सवाल
यह पूरा विवाद दिखाता है कि कैसे इतिहास को वर्तमान राजनीति के हिसाब से ढाला जा रहा है। औरंगजेब को ‘आक्रमणकारी’ बताने वाले बयान और मथुरा-काशी की मांगें सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने का जोखिम पैदा करती हैं। वहीं, आरएसएस का रुख इस बात का संकेत है कि संगठन चाहता है कि बीजेपी सीमित समय में अति आक्रामकता से बचे।
अंततः, सवाल यह है कि क्या इतिहास की व्याख्या राजनीतिक एजेंडे से प्रेरित होनी चाहिए? एक लोकतांत्रिक समाज में विविध विचारों के साथ इतिहास के प्रति संतुलित दृष्टिकोण ही राष्ट्रीय एकता को मजबूत कर सकता है। नए भारत की परिभाषा में सभी समुदायों की भागीदारी जरूरी है, न कि केवल अतीत के घावों को हरा करना।