परिचय
दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के ख़िलाफ़ नकदी विवाद ने न्यायपालिका की पारदर्शिता और केंद्र सरकार के हस्तक्षेप को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। उनके सरकारी आवास पर भारी मात्रा में नकदी बरामद होने के बाद, केंद्र सरकार ने नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) को फिर से लागू करने के संकेत दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2015 में असंवैधानिक करार देकर खारिज किए गए इस प्रस्ताव को फिर से जीवित करने की कोशिश, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सरकार की भूमिका को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा कर सकती है।
जस्टिस यशवंत वर्मा नकदी विवाद: क्या है पूरा मामला?
यह विवाद 14 मार्च 2025 को तब सामने आया जब जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना के बाद, वहाँ से बड़ी मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरें आईं। इसके बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने इस मामले में सीबीआई और ईडी जाँच की माँग की।
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा जस्टिस वर्मा के इलाहाबाद हाई कोर्ट में ट्रांसफर की सिफारिश की गई, लेकिन इस फैसले को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया। इस घटना ने न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता के प्रश्न को फिर से सतह पर ला दिया है।
एनजेएसी: न्यायिक नियुक्तियों पर नया विवाद
एनजेएसी क्या है?
नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (NJAC) एक ऐसा संवैधानिक निकाय था जिसे 2014 में केंद्र सरकार द्वारा जजों की नियुक्ति को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए प्रस्तावित किया गया था। संसद द्वारा पारित इस बिल को सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर दिया था, यह कहते हुए कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता में दखल देता है।

कॉलेजियम सिस्टम बनाम एनजेएसी
भारत में जजों की नियुक्ति वर्तमान में कॉलेजियम सिस्टम के तहत होती है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जज ही जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण की सिफारिश करते हैं।
वहीं, एनजेएसी एक संगठित निकाय था जिसमें सरकार की भूमिका को भी महत्वपूर्ण बनाया गया था। इस बिल के तहत:
- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में केंद्र सरकार की भागीदारी होती।
- न्यायिक नियुक्तियों में सीजेपी (CJI), केंद्रीय कानून मंत्री और अन्य दो वरिष्ठ जजों की भूमिका प्रमुख होती।
- एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में दो प्रतिष्ठित व्यक्ति इस पैनल में शामिल होते।
एनजेएसी के पक्ष और विपक्ष के तर्क
एनजेएसी के पक्ष में तर्क:
- कॉलेजियम सिस्टम पारदर्शिता की कमी और पक्षपातपूर्ण होने के आरोपों से घिरा रहा है।
- सरकार का मानना है कि एनजेएसी से जजों की नियुक्ति में निष्पक्षता और जवाबदेही बढ़ेगी।
- केंद्र सरकार का कहना है कि न्यायपालिका खुद को किसी भी जवाबदेही से मुक्त रखती है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ख़तरनाक है।

एनजेएसी के विरोध में तर्क:
- सुप्रीम कोर्ट और कई न्यायविदों का मानना है कि एनजेएसी से न्यायपालिका की स्वतंत्रता कमजोर होगी।
- सरकार के बढ़ते हस्तक्षेप से न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव बढ़ सकता है।
- सुप्रीम कोर्ट ने इस बिल को संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ बताया और इसे रद्द कर दिया।
न्यायपालिका और सरकार के बीच शक्ति संघर्ष
न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका की यह जंग कोई नई नहीं है। इससे पहले भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर विवाद होते रहे हैं।
2015 में एनजेएसी खारिज होने के बाद, सरकार लगातार कॉलेजियम सिस्टम में बदलाव लाने की कोशिश करती रही है।
- पूर्व सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे का कहना है कि इस तरह के विवादों से जनता का न्यायपालिका पर से भरोसा कम हो सकता है।
- कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार इस मुद्दे को बहाने के रूप में इस्तेमाल करके न्यायिक नियुक्तियों में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है।
- उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी एनजेएसी को फिर से लागू करने का समर्थन किया है।
क्या केंद्र सरकार जस्टिस वर्मा विवाद का फायदा उठा रही है?
सोशल मीडिया और राजनीतिक हलकों में इस मुद्दे पर विभिन्न दृष्टिकोण सामने आ रहे हैं।
- विपक्षी दलों का कहना है कि केंद्र सरकार इस विवाद का इस्तेमाल न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर करने के लिए कर रही है।
- सत्तारूढ़ दल का कहना है कि पारदर्शी और जवाबदेह न्यायिक नियुक्ति प्रणाली समय की माँग है।
- वरिष्ठ पत्रकारों और कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यदि न्यायपालिका को पारदर्शिता बढ़ानी है, तो उसे खुद को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।
निष्कर्ष: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन
जस्टिस यशवंत वर्मा का नकदी विवाद और एनजेएसी को फिर से लागू करने की चर्चाएँ देश के लोकतांत्रिक ढाँचे के लिए महत्वपूर्ण मोड़ बन सकते हैं।
- यदि एनजेएसी लागू होता है, तो इससे जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की शक्ति बढ़ जाएगी, जिसे न्यायपालिका शायद आसानी से स्वीकार न करे।
- यदि जस्टिस वर्मा मामले में पारदर्शी जाँच नहीं हुई, तो इससे न्यायिक व्यवस्था के प्रति जनता का भरोसा कम हो सकता है।
- यह मुद्दा केंद्र और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन की जंग का प्रतीक बन सकता है।
क्या यह महज संयोग है, या कोई सुनियोजित रणनीति?
आने वाले दिनों में यह साफ़ होगा कि यह मामला न्यायिक सुधार की दिशा में एक कदम बनेगा या फिर केंद्र और न्यायपालिका के बीच एक नई जंग का कारण।