नई दिल्ली: पूरे भारतवर्ष में इस्लामिक महीने रबी उल-अव्वल की 12वीं तारीख को एक अलग ही धार्मिक उल्लास देखने को मिलता है। मस्जिदें और घर रोशनी से जगमगा उठते हैं, जुलूस निकाले जाते हैं और लोग एक-दूसरे को बधाइयाँ देते हैं। यह है ईद-ए-मिलाद उन नबी, जिसे मावलिद के नाम से भी जाना जाता है। यह वह दिन है जब इस्लाम के आखिरी पैगंबर, हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह त्योहार सिर्फ जन्मदिन मनाने भर तक सीमित नहीं है? इसके पीछे एक गहरा दार्शनिक और सामाजिक महत्व छिपा है।
क्या है ईद-ए-मिलाद का इतिहास और महत्व?
ईद-ए-मिलाद मनाने की शुरुआत को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। मान्यता है कि 8वीं शताब्दी में इराक के एक शहर में सबसे पहले इस दिन को मनाया गया था। हालाँकि, इसे व्यापक रूप से 11वीं शताब्दी में मिस्र में फ़ातिमिद राजवंश द्वारा एक सार्वजनिक त्योहार के रूप में स्थापित किया गया। भारत में इसकी शुरुआत मुगल काल में हुई, विशेषकर औरंगजेब के शासनकाल के दौरान इसे राजकीय संरक्षण मिला।

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, पैगंबर मुहम्मद साहब का जन्म 570 ईस्वी में रबी उल-अव्वल महीने की 12वीं तारीख को मक्का में हुआ था। दिलचस्प बात यह है कि इसी दिन उनका इंतकाल (वफात) भी हुआ था। इसलिए, यह दिन जहाँ एक ओर जश्न-ए-मिलाद (जन्म का उत्सव) है, वहीं दूसरी ओर यह एक शोक और उनकी विरासत को याद करने का दिन भी है। इस द्वंद्व के कारण, दुनिया के कुछ हिस्सों में इस दिन को मनाने को लेकर अलग-अलग मत हैं। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप सहित अधिकांश इस्लामिक दुनिया में इसे आस्था, प्रेम और खुशी के साथ मनाया जाता है।
कैसे मनाया जाता है यह त्योहार?
ईद-ए-मिलाद मनाने की रीतियाँ क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन कुछ सामान्य चीजें हैं जो हर जगह देखने को मिलती हैं:
- इबादत और दुआएँ: इस दिन मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने दुनिया को पैगंबर जैसी महान हस्ती दी। विशेष नमाज़ें पढ़ी जाती हैं और दुआएँ माँगी जाती हैं।
- मिलाद जुलूस (Processions): यह ईद-ए-मिलाद की सबसे प्रमुख और दृश्यमान परंपरा है। बड़े-बड़े जुलूस निकाले जाते हैं, जिनमें लोग हरे रंग के झंडे (जो इस्लाम का प्रतीक है) लेकर चलते हैं। इन जुलूसों में पैगंबर के जीवन के दृश्यों को दर्शाती झाँकियाँ भी शामिल होती हैं।
- नात और हम्द (गीत और भजन): इस दिन पैगंबर की प्रशंसा में लिखे गए गीत, जिन्हें ‘नात’ या ‘कव्वाली’ कहा जाता है, गाए जाते हैं। इन गीतों में उनके चरित्र, सहनशीलता, दया और संदेश का बखान किया जाता है।
- चादरपोशी (Chadarposhi): मस्जिदों और दरगाहों को फूलों और रोशनी से सजाया जाता है। पैगंबर की कब्र के प्रतीक पर हरे रंग की चादर (चादरपोशी) चढ़ाई जाती है।
- जकात और दान (Charity): पैगंबर मुहम्मद साहब गरीबों और जरूरतमंदों की मदद करने के लिए प्रेरित करते थे। इसलिए, इस दिन दान देने को विशेष महत्व दिया जाता है। लोग गरीबों को खाना, कपड़े और पैसे बाँटते हैं।
- भाईचारे का संदेश: इस दिन लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं और पैगंबर के सदाचार, सच्चाई और भाईचारे के संदेश को फैलाने का संकल्प लेते हैं।
आधुनिक संदर्भ और सामाजिक सद्भाव
आज के दौर में, ईद-ए-मिलाद सिर्फ एक धार्मिक उत्सव नहीं रह गया है। यह सामाजिक सद्भाव और एकता का एक powerful symbol बन गया है। भारत जैसे बहुलवादी देश में, मिलाद के जुलूसों में अक्सर दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल होते हैं, जो देश की धार्मिक सहिष्णुता की मिसाल पेश करता है।
दिल्ली के जामा मस्जिद के इमाम और विद्वान मौलाना सैयद अहमद बुखारी कहते हैं, “मिलाद का असल मकसद सिर्फ रस्म अदायगी नहीं है। इसका मकसद है पैगंबर साहब के जीवन से सीख लेना। उन्होंने जो संदेश दिया – ईमानदारी, दया, न्याय और सभी इंसानों के साथ अच्छा व्यवहार – उसे अपने जीवन में उतारना ही सच्ची मन्ज़िल है।”
निष्कर्ष
ईद-ए-मिलाद उन नबी, इस्लाम के सबसे महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है, जो पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन और उनके द्वारा दिए गए संदेशों पर चिंतन करने का अवसर प्रदान करता है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि धर्म का असली उद्देश्य मानवता की सेवा, नैतिकता और सदाचार का पालन करना है। रोशनी, जुलूस और गीतों के बीच छिपा यही सार्वभौमिक संदेश ईद-ए-मिलाद को एक ऐसा उत्सव बनाता है जो सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह त्योहार हमें आपसी प्रेम, सहिष्णुता और शांति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, जो आज के विभाजित विश्व में और भी अधिक प्रासंगिक हो गया है।